शिबू सोरेन : आदिवासी आंदोलन से संसद तक का सफर, 11 बार के सांसद! तीन बार CM रहे शिबू सोरेन की पूरी जीवनी

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भारत के झारखंड राज्य की राजनीति में जिस नाम को आदिवासी समाज के संघर्ष, पहचान और नेतृत्व का प्रतीक माना जाता है, वह है शिबू सोरेन। उन्हें लोग प्यार से “गुरुजी” और “दिशोम गुरु” भी कहते हैं। उनका जीवन संघर्ष, आंदोलन और राजनीतिक उतार‑चढ़ाव से भरा हुआ रहा।

प्रारंभिक जीवन

शिबू सोरेन का जन्म 11 जनवरी 1944 को झारखंड (तत्कालीन बिहार) के एक छोटे से गांव में हुआ था। वे संताल जनजाति से ताल्लुक रखते थे। उनके पिता सोबरन सोरेन एक समाजसेवी और शिक्षक थे, जिन्होंने महाजनों और सूदखोरों के खिलाफ आवाज उठाई थी। इसी सामाजिक संघर्ष के कारण उनके पिता की हत्या कर दी गई। इस घटना ने युवा शिबू के मन में अन्याय और शोषण के खिलाफ लड़ने की आग भर दी।

पिता की मृत्यु के बाद शिबू सोरेन की पढ़ाई अधूरी रह गई। उन्होंने मजदूरी, ठेकेदारी और छोटे‑मोटे काम किए, लेकिन जल्द ही वे सामाजिक आंदोलन की राह पर निकल पड़े।

सामाजिक संघर्ष और आंदोलन

युवावस्था में ही उन्होंने संताल नवयुवक संघ की स्थापना की। इस संगठन का उद्देश्य आदिवासी समाज को एकजुट करना और उनके हक के लिए आवाज उठाना था।

इसके बाद उन्होंने धनकटनी आंदोलन की शुरुआत की। इस आंदोलन का मकसद उन आदिवासियों की जमीन वापस लेना था, जिन्हें महाजनों और जमींदारों ने छल और बल से छीन लिया था। आंदोलन के दौरान शिबू सोरेन ने सीधे तौर पर जमींदारों को चुनौती दी और आदिवासियों में आत्मसम्मान की भावना जगाई।

इन्हीं आंदोलनों ने उन्हें आदिवासी समाज का “दिशोम गुरु” बना दिया।

झारखंड मुक्ति मोर्चा की स्थापना

1970 के दशक में शिबू सोरेन ने बिनोद बिहारी महतो और अन्य साथियों के साथ मिलकर झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) की स्थापना की। इस संगठन का मुख्य उद्देश्य था—

  1. झारखंड के आदिवासियों के हक की रक्षा
  2. उनकी जमीन और संसाधनों पर अधिकार
  3. अलग झारखंड राज्य की मांग

शिबू सोरेन की नेतृत्व क्षमता और आंदोलनकारी स्वभाव ने जल्दी ही उन्हें झारखंड आंदोलन का प्रमुख चेहरा बना दिया।

राजनीति में प्रवेश

शिबू सोरेन का सक्रिय राजनीतिक सफर 1970 के दशक में शुरू हुआ। उन्होंने कई बार लोकसभा चुनाव लड़े और कई बार दुमका सीट से संसद पहुंचे। संसद में उन्होंने लगातार आदिवासी अधिकारों, वन कानूनों और झारखंड राज्य की मांग को उठाया।

लंबे संघर्ष के बाद 15 नवंबर 2000 को झारखंड राज्य का गठन हुआ। यह उनके जीवन का सबसे बड़ा राजनीतिक सपना था, जो सच हुआ।

मुख्यमंत्री और केंद्रीय मंत्री

शिबू सोरेन झारखंड के तीन बार मुख्यमंत्री बने। हालांकि उनके कार्यकाल छोटे और राजनीतिक संकटों से घिरे रहे, लेकिन उन्होंने राज्य की राजनीति पर गहरी छाप छोड़ी।

इसके अलावा वे केंद्र में कोयला मंत्री भी रहे। उनकी राजनीतिक यात्रा में कई उतार‑चढ़ाव आए—कभी सत्ता में, कभी जेल में, लेकिन उनका संघर्ष कभी नहीं रुका।

विवाद और चुनौतियाँ

शिबू सोरेन का जीवन विवादों से भी अछूता नहीं रहा। उन पर कई आपराधिक और राजनीतिक मामले चले, जिनमें हत्या और भ्रष्टाचार तक के आरोप शामिल थे। उन्होंने कई बार जेल की हवा खाई, पर अंततः अधिकांश मामलों में वे बरी हुए।

इन सबके बावजूद वे झारखंड की राजनीति में अद्वितीय नेता बने रहे।

आदिवासी समाज में योगदान

शिबू सोरेन की सबसे बड़ी विरासत उनका आदिवासी समाज के लिए योगदान है। उन्होंने—

  • आदिवासियों में राजनीतिक चेतना जगाई
  • उनकी जमीन और संसाधनों पर अधिकार की लड़ाई लड़ी
  • झारखंड आंदोलन को राष्ट्रीय स्तर तक पहुँचाया
  • राज्य की राजनीति में आदिवासी नेतृत्व को मजबूत किया

उनकी सोच ने झारखंड के युवाओं को अपनी पहचान और अधिकार के लिए खड़ा होना सिखाया।

परिवार और राजनीतिक विरासत

शिबू सोरेन का परिवार भी राजनीति में सक्रिय रहा। उनके पुत्र हेमंत सोरेन झारखंड के मुख्यमंत्री बने और JMM की कमान संभाली। इस तरह शिबू सोरेन की राजनीतिक विरासत आज भी झारखंड की राजनीति में जीवित है।

निधन और विरासत

लंबी बीमारी के बाद 4 अगस्त 2025 को 81 वर्ष की आयु में शिबू सोरेन का निधन हो गया। उनके जाने से न सिर्फ झारखंड, बल्कि पूरे देश की आदिवासी राजनीति में एक युग का अंत हो गया।

शिबू सोरेन का जीवन इस बात का प्रमाण है कि संघर्ष और साहस से असंभव भी संभव किया जा सकता है। उन्होंने एक साधारण आदिवासी युवक से लेकर संसद और मुख्यमंत्री पद तक का सफर तय किया। उनकी स्मृति हमेशा आदिवासी समाज और झारखंड की राजनीति में अमर रहेगी।

शिबू सोरेन का जीवन एक संघर्षशील नेता की कहानी है। उन्होंने न केवल अपनी व्यक्तिगत कठिनाइयों को पार किया, बल्कि पूरे आदिवासी समाज को नई दिशा दी। उनका जीवन आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा है कि सामाजिक न्याय और हक की लड़ाई में साहस और धैर्य ही सबसे बड़ा हथियार है।

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